आंतरिक लोक बहिर्लोक चतुर्थ भाग “चित्प्रवृत्ति से परे”
हम अपना जीवन सुख और स्वतंत्रता के परिशीलान में समन कर देते हैं मानो कि वे क्रय वस्तु हों। हम अपनी ही इच्छाओं एवं लालसाओं के दास हो गए हैं। यही है माया, भ्रम व रूप की अंतहीन लीला । जागरण तथा आनंद की इच्छा करना गलत नहीं है, लेकिन हमें यह समझना चाहिए कि इन्हें स्वयं से बाहर नहीं पाया जा सकता है।
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