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आंतरिक लोक बहिर्लोक श्रृंखला

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आंतरिक लोक बहिर्लोक आवलि प्रथम भाग – आकाश

आकाश है अव्यक्त शून्यता, जो अंतरिक्ष के रिक्त स्थान को भरता है। संत, ऋषि, योगी और अन्य साधक जिन्होंने स्वयं के अंतर में अवलोकन किया है उन्हने अनुभव किया है कि केवल एक स्पंदन स्रोत है जोकि सभी वैज्ञानिक और आध्यात्मिक शोधों का मूल है। जब हम सभी आध्यात्मिक अनुभव के एक ही स्रोत को अनुभव करते हैं, तब हम , ”मेरा धर्म”, “मेरा ईश्वर” या “मेरी खोज” कैसे कह सकते हैं?

 

आंतरिक लोक बहिर्लोक द्वितीय भाग – कम्बुक चक्र / सर्पिल

पाइथागोरस दार्शनिक प्लेटो ने दृष्टकूट किया एक स्वर्ण कुंजी की ओर जो ब्रह्मांड के सभी रहस्यों की पृणक्ति करती है। प्रत्येक वैज्ञानिक जो ब्रह्मांड में गहराई से दर्शन करता है या प्रत्येक रहस्यवादी जो स्वयं के भीतर अन्वेषण करता है, अंतत: नैसर्गिक कम्बुक चक्र या सर्पिल को अपने समक्ष पाता है।

आंतरिक लोक बहिर्लोक तृतीय भाग सर्प एवं जलज

सर्पिल का निरूपण नीचे की ओर प्रवाहित सर्प शक्ति द्वारा किया जाता है, तथा पक्षी या खिलते हुए कमल का फूल ऊपर परप्रमाता की ओर प्रवाहित शक्ति को प्रतिरूपित करता है । प्राचीन परंपराओं ने ज्ञापित किया है कि इंसान बहिर्लोक से आंतरिक लोक को, स्थूल से सूक्ष्म को तथा निम्न चक्रों से उच्च चक्रों को जोड़ता एक पुल बन सकता है।

आंतरिक लोक बहिर्लोक चतुर्थ भाग “चित्प्रवृत्ति से परे”

हम अपना जीवन सुख और स्वतंत्रता के परिशीलान में समन कर देते हैं मानो कि वे क्रय वस्तु हों। हम अपनी ही इच्छाओं एवं लालसाओं के दास हो गए हैं। यही है माया, भ्रम व रूप की अंतहीन लीला । जागरण तथा आनंद की इच्छा करना गलत नहीं है, लेकिन हमें यह समझना चाहिए कि इन्हें स्वयं से बाहर नहीं पाया जा सकता है।